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परवेज़ जालन्धरी
जिनके होठों पे हँसी पाँवमें छाले होंगे
हाँ वही लोग तुम्हे ढुँढनेवाले होंगे
हाँ वही लोग तुम्हे ढुँढनेवाले होंगे
मय बरसती है फज़ाँओंपे नशा तारी है
मेरे साकीने कहीं जाम उछाले होंगे
शमा ले आये हैं हम जल्वा गहे जानाँ से
अब तो आलम में उजाले ही उजाले होंगे
हम बडे नाज़ से आये थे तेरी मेहफिलमें
क्या खबर थी लबे-इज़्हार पर ताले होंगे
उनसे मफ्हूमे-गमे-ज़िस्त अदा हो शायद
अश्क जो दामने-मिजगाँ में संभाले होंगे
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मुज़्ज़्फर वारसी
माना के मुश्ते-खाक से बढकर नहिं हूं मैं,
लेकिन हवा के रहमो-करम पर नहिं हूं मैं
इंसान हूं धडकते हुए दिलपे हाथ रख,
यूं डुबकर न देख समन्दर नहीं हूं मैं
चेहरे पे मल रहा हूं सियाही नसीब की
आइना हाथमें है सिकन्दर नहीं हूं मैं
गालिब तेरी जमीं में लिख्खी तो है गजल.
तेरे कद-ए-सूखन के बराबर नहीं हूं मैं
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एहमद फराज़
मेरे वजूदकी मुझमें तलाश छोड गया
जो पुरी न हो कभी ऎसी आस छोड गया
यही करम नवाज़ी उसकी मुझपे कम है क्या
के खुद तो दुर है यादें तो पास छोड गया
जो ख्वाहिशें थीं कभी हसरतोंमें ढल गयीं अब
मेरे लबों पे वो एक लब्ज़ काश छोड गया
ये मेरा ज़र्फ है एक रोज़ उसने मुझसे कहा
के आम लोगोंमें एक तुझको खास छोड गया
खीज़ाओंसे ईसी लिये तो नफरत है फराज़
इन्हीं रुतोंमें मुझे वो उदास छोड गया
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एहमद फराज़
तुम भी खफा हो लोगभी बेरेहम है दोस्तों
अब हो चला यकीं के बुरे हम है दोस्तों
अब हो चला यकीं के बुरे हम है दोस्तों
किस्को हमारे हालसे निस्बत है क्या करें
आँखें तो दुश्मनोंकी भी पुर नम है दोस्तों
आँखें तो दुश्मनोंकी भी पुर नम है दोस्तों
अपने सिवा हमारे ना होने का गम किसे
अपनी तलाशमें तो हम ही हम हैं दोस्तों
कुछ आज शामसे ही है दिलभी बुझा बुझा
कुछ शहर के चिराग भी मध्धम है दोस्तों
इस शहर-ए-आरझु से अब बाहर निकल चलो
अब दिलकी रौनकेंभी कोइ दम है दोस्तो
सब कुछ सही ‘फराज़’ पर इतना ज़रुर है
दुनियामें ऎसे लोग बहुत कम है दोस्तो
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परवीन शाकिर
गये मौसममे जो खिलते थे गुलाबोंकी तरह
दिलपे उतरेंगे वही ख्वाब अज़ाबोंकी तरह
राखके ढेरपे अब रात बसर करनी है
जल चुके हैं मेरे खेमे मेरे ख्वाबोंकी तरह
सत-ए-दिल के आरीज़ हैं गुलाबी अब तक
अवलें लम्हों के गुलनार हिजाबों की तरह
वो समन्दर है तो फिर रुह को शादाब करें
तश्नगी क्यों मुझे देता है सराबोंकी तरह
गर मुमकिन है तेरे घरके गुलाबोंका शुमार
मेरे रिसते हुए ज़ख्मोंके हिसाबोंकी तरह
याद तो होगी वो बातें तुझे अबभी लेकिन
शेल्फमें रख्खी हुइ बन्द कितबोंकी तरह
कौन जाने के नये सालमें तु किसको पढे
तेरा मयार बदलता है निसाबोंकी तरह
शोख हो जाती है अबभी तेरी आँखोंकी चमक
गाहे गाहे तेरे दिलचश्प जवाबों की तरह
हिज्र की शब मेरी तन्हाईपे दस्तक देगी
तेरी खुश्बो मेरे खोये हुए ख्वाबोंकी तरह
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मैं जो मेहका तो मेरी शाख जला दी उसने
सब्ज़ मौसममें मुझे ज़र्द हवा दी उसने
पेहले एक लम्हे की ज़ंज़ीर से बाँधा मुझको
और फिर वक्त की रफ्तार बढा दी उसने
मेरी नाकाम मुहब्बत मुझे वापस कर दी
यूँ मेरे हाथ मेरी लाश थमा दी उसने
जानता था के मुझे मौत सुकूँ बक्शेगी
वो सितमगर था सो जीनेकी दुआ दी उसने
उसके होने से थीं साँसें मेरी दुगनी शायद
वो जो बिछडा तो मेरी उम्र घटा दी उसने
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